त्वचा पर बहुमूल्य जानकारी (Know your Skin or Cutanous System)

 त्वचा पर बहुमूल्य जानकारी (Know your Skin or Cutanous System)


चेहरे की सुन्दरता चेहरे की त्वचा की सुन्दरता पर निर्भर करती है। अतः त्वचा के सम्बन्ध में, उसकी आन्तरिक रचना के सम्बन्ध में अधिक से अधिक रचनात्मक ज्ञान (Anatomical Knowledge) प्राप्त करना आवश्यक है। इसके बाद ही त्वचा के सम्बन्ध में पढ़ना और समझना आसान होगा। संक्षिप्त में शरीर के आवरण रूपी खाल को त्वचा या चर्म (Skin) कहते हैं। इसके आन्तरिक अवयवों के समूह को त्वचा तन्त्र या चर्म संस्थान (Cutaneous System) कहते है।


हमारे शरीर में उत्पन्न हुए घुलनशील विकारों का अधिकांश भाग जैसे कार्बनडायक्सायड, ताप, जलीय कुछ भाग फेफड़ों के द्वारा प्रश्वास के साथ-साथ बाहर निकल जाता है। नाइट्रोजन प्रधान घुलनशील निकृष्ट अवशेष यूरिया, यूरिक एसिड, अतिरिक्त जल एवं कुछ कार्बानिक एवं अकार्बानिक लवण मूत्र के रूप में रक्त से अलग हो जाते हैं। कुछ स्तनपायी के अतिरिक्त जल, ताप और कुछ अन्य घुलनशील विकारों को मुक्त करने के लिये जो तन्त्र क्रियाशील होता है वह "चर्म तंत्र" ही है।


मल-मूत्र संस्थान के अन्तर्गत जितने अंग (अवयव organs) आते हैं उनमें त्वचा (चर्म) प्रमुख अंग है। त्वचा का वृक्कों से पूर्ण निकटता का सम्बन्ध है। यह तो सर्वसाधारण का अनुभव है कि मूत्र अधिक हो तो पसीना कम, मूत्र कम तो पसीना अधिक आता है।


त्वचा की रचना एवं रचनात्मक अध्ययन



चर्म के भाग


त्वचा की तीन परतें होती हैं जो इस प्रकार हैं-


1. बाह्य या बाहरी पर्त (Epidermis)


2. मध्य पर्त (Malpighian Layer)


3. आभ्यन्तर या आन्तरिक चर्म (Dermis)


 बाह्य त्वचा या बाहरी पर्त (Epidermis) बाहरी त्वचा पारदर्शी एवं जल अभेद्य अर्थातु इसके आरपार देखा जा सकता है, जलीय पदार्थ बाहरी त्वचा होने के कारण आर-पार नहीं हो सकता है। किसी प्रकार का रस भी पार नहीं जा सकता है। चाहे वे तन्तु रस हो या और कुछ और ही है। इसकी अभेद्यता के कारण ही हम कोई विषैला पदार्थ छू भी लेते हैं और स्पर्श भी करते हैं तो विषैले प्रभाव से बचे रहते हैं। सूक्ष्मदर्शी यंत्र (Microscope) से देखा जाये तो इस बाहरी पर्त में भी आच्छादक तन्तुओं की कई पर्ते स्पष्ट दीखती हैं। ये पर्ते एक-दूसरे से ऐसे ही लगी होते हैं जैसे कागज के दो पृष्ठ एक-दूसरे से चिपके होते हैं। अन्तर इतना होता है कि कागज के पन्ने अपारदर्शक होते हैं जबकि बाह्य त्वचा की प्रत्येक पर्त पारदर्शक। बाह्य चर्म की बाहरी पर्त सूखी, कड़ी और चिमड़ी (सींग से मिलती-जुलती Horny) होती है। यह पर्त चपटी आच्छादक कोशिकाओं से निर्मित होती है। यह पर्त भीतरी पत्तों की रक्षा करती है क्योंकि वे जितने ही अन्दर होती हैं क्रमशः नर्म (कोमल) होती हैं। इस कोमल पर्त को बीजाणु क्षेत्र (Germinal Zone) कहते हैं क्योंकि इसमें बराबर कोशिकाओं की वृद्धि एवं विभाजन (Cell Division) का कार्य चलता रहता है।


बाह्य चर्म की मोटाई शरीर के प्रत्येक भाग पर समान नहीं होती है। होंठ की बाहरी त्वचा सबसे पतली' होती है, पैर के तलवे (तलुवे) की सबसे मोटी। इसके अन्दर रक्त कोशिकाओं का अभाव होता है जिससे मात्र बाहरी त्वचा के कटने या छिलने मात्र से रक्तस्राव नहीं होता है। कोशिकाओं का पोषण लसिका से होता है।


बाहरी पर्त कपड़ों आदि के सिवाय काम करने के समय एवं वायु के घर्षण आदि के कारण अनवरत रूप से घिसती रहती है अर्थात् नष्ट होती रहती है। फिर उसके स्थान पर नयी पर्त आती रहती है। यह कार्य इतनी सूक्ष्मता से होता है कि हमें अनुभव ही नहीं होता है।।


बाहरी चर्म की ऊपरी कठोर पर्त विशेष विशेष स्थान पर घर्षण और दबाव के कारण और अधिक कठोर हो जाती है। इतना ही नहीं कोशिकाओं की अधिक सक्रियता के कारण सैंकड़ों कोशिकायें एकत्र होकर कई परतों का निर्माण करती हैं जिससे वहाँ उभार-सा हो जाता है। अक्सर इन्हें गट्टे कहते हैं जो कि हाथ और पाँव में अधिकतर हुआ करते है। कुदाल, कुल्हाड़ी चलाने या पानी खींचने जैसे काम करने से हाथ में, अनवरत लम्बी यात्रा या अधिकतर नंगे पाँव चलने से, पाँव में गड्ढे (Corn) हो जाते हैं।


होंठ, मुँह, नाक, तालु, आँख आदि की बाहरी पर्त मृदु (कोमल) होती है। नाखून और * बाल भी शरीर के बाहरी त्वचा के ही परिवर्तित रूप हैं।


1. चर्म रन्ध्र (त्वचा के छिद्र) - जब हम अपने त्वचा को विशालन काँच (Magnify- ing glass) से देखते हैं तो जहाँ-तहाँ उभार दिखलाई देते हैं। इन उभारों के बीच छिद्र होते हैं। ये सैकड़ों, हजारों की संख्या में होते हैं। इन छिद्रों को ही चर्म-रन्ध्र (पोर्स Pores) कहते हैं। इन्हीं छिद्रों से पसीना शरीर से अनवरत रूप से निकलता रहता है। वस्तुतः प्रत्येक छिद्र. स्वेद ग्रंथि का मुँह होता है जो बाहर की ओर खुलते हैं। इन चर्म-रन्ध्रों की संख्या सारे शरीर में समान रूप से नहीं होती है। जैसे तलहथी में इनकी संख्या अपेक्षाकृत अधिक होती है।

प्रतिवर्ग इंच में इनकी संख्या लगभग तीन हजार तक होती है। जबकि पैर, पीठ आदि में तो इनकी संख्या प्रति वर्ग इंच पाँच छः सौ से अधिक नहीं होती।


2. मध्य पर्त (Malighian Layer) जैसा कि होती है, इसका कोई रंग नहीं होता, यह रंगहीन एवं हम जान चुके हैं। हैं कि बाह्य त्वचा पारदर्शी पारदर्शी होती है। परन्तु इसके बाद वाली पर्त की कोशिकायें अपेक्षाकृत अधिक कोमल होती हैं। इस पर्त की ऊपरवाली कोशिकायें पट्‌कोणीय और भीतरी चौखुंटी तथा स्तम्भाकार होती हैं। अतः यह पर्त मुलायम लेकिन कम पारदर्शी होती है। इस पर्त की कुछ कोशिकाओं में रंग के कण होते हैं। इन्हीं रंग के कणों के कारण हम गोरे या काले दिखलाई पड़ते हैं। बाह्य चर्म के पारदर्शी होने के कारण इसी परत को हम देखते हैं और इसे ही बाहरौ त्वचा, मूलवश समझ लेते हैं। कणों का रंग एवं परिमाण बहुत हद हद तक प्राकृतिक जलवायु एवं वंश परम्परा (Heredity) पर निर्भर करता है। उदाहरणार्थ हब्शियों को त्वचा में रंग कणों की संख्या अधिक होती है जिससे उनके रंग अधिक काले होते हैं। यूरोप के लोगों की त्वचा में ये रंग कण कम होने से यह गोरे या लाल दिखते हैं। आभ्यन्तर चर्म में रक्त कोशिकाओं का घना जाल है जिससे बाह्य चर्म के पारदर्शी होने के कारण यह भाग ही दिखाई देता है। इससे स्पष्ट है कि रक्त का रंग लाल होने से त्वचा का रंग लाल दिखलाई देता है। हम दैनिक जीवन में भी देखते हैं कि काले रंग की त्वचा वाले व्यक्ति अन्य की अपेक्षा अधिक धूप और गर्मी बर्दाश्त करते


हैं। प्रायः इसी कारण गर्म देशों वालों की त्वचा अपेक्षाकृत अधिक काली होती है। परन्तु यह भी मानना होगा कि जलवायु के साथ-साथ नस्ल के आधार पर भी त्वचा के रंग होते हैं। आज से लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व अफ्रीका के जो हब्शी, अमेरिका में जाकर बसे कई पीढ़ियों के बाद भी उनके रंग में कोई विशेष अन्तर नहीं आ सका है।


3. आभ्यन्तर चर्म (Dermis) - वाह्य त्वचा के नीचे रंग वाली (मध्य पर्त) चर्म है। रंग वाली के नीचे आभ्यन्तर चर्म है या यों समझें कि त्वचा की तीन परतों में से सबसे भीतरी पर्त आभ्यन्तर पर्त है। यह पर्त (Dermis) संयोज़क और लचीले सक्रिय तन्तुओं की एक मोटी तह होती है। इसके अन्दर रक्त कोशिकायें, लसिकायें एवं तंत्रिका तन्त्र का जाल बिछा



होता है। इनके अतिरिक्त इसमें स्वेद ग्रंथि (Sweatglands) होती हैं, जिनकी प्रणाली (Duct.) का ऊपरी भाग चर्मरन्ध्र या चर्म छिद्र के (Pores) रूप में बाहर खुलते हैं। इस परत में तेल ग्रंथियाँ भी होती हैं जिसे अंग्रेजी में (Sebacesus glands) कहा जाता है। इन ग्रंथियों से निकलने वाला स्राव त्वचा को चिकना और मुलायम बनाता है। आभ्यान्तर चर्म में वालों के अंकुरक (Papilla) पाये जाते हैं। इन ग्रंथियों का भी तेल ग्रंथि से लगाव होता है। आभ्यान्तर चर्म (Dermis) को ऊपरी भाग अपेक्षाकृत अधिक कठोर होता है जबकि


निम्न भाग कोमल होता है। इसके निम्न भाग में वसा के कणों की एक पतली सी पर्त भी पायी जाती है। इस पर्त के बाद चर्म के तन्तु कुछ विरले होते हैं। इसके बीच वसा के तन्तु (Adipose tissue) होते हैं। यही कारण है कि हम त्वचा में जब चिकोटी काटते हैं तो त्वचा ऊपर उठ जाती है।


चर्माकुर (Papilla) क्या है ? - आभ्यन्तर त्वचा का ऊपरी भाग समतल नहीं होता है। बल्कि अनेक उभार होते हैं। यह उभार ही चर्माकुर के नाम से जाने जाते हैं। यह इतने छोटे-छोटे होते हैं कि इनमें से जो वड़े से बड़ा होता है वह भी इंच के सौवें भाग से अधिक नहीं होता है। यह आँखों से नहीं देखे जा सकते हैं। दो उभारों के बीच रंग वाली परत के कण होते हैं। प्रत्येक चर्माकुर के अन्दर रक्तकोशिकायें होती हैं। जिनके द्वारा इनका भरण-पोषण होता रहता है। इन्हीं रक्तवाहिनियों के द्वारा, इन उभारों के द्वारा उत्सर्जित पदार्थ रक्त में मिल जाता है। साथ ही कुछ चर्माकुरों में तंत्रिका सूत्र, स्पर्शकोष (Tactile Corpuscles) लसिका की नली (Lymphatic ducts) भी रहती है। कुछ तंत्रिका तंत्र की शाखाओं का अन्त बाह्य चर्म में होता है। इसी से त्वचा का चर्माकुर वाला भाग अति संवेदनशील होता है। कोई नुकीली चीज या सूई आदि इसी भाग में चुमता है तो रक्त बहता है।

चर्म ग्रंथियाँ (Dermal Glands) - आभ्यान्तर चर्म के चर्माकुरों के बीच दो प्रकार की ग्रंथियाँ पायी जाती हैं। वे हैं-


1. स्वेद ग्रंथियाँ (Sweat Glands) और


2. तैलीय ग्रंथियाँ (Seleaceous Glands)

स्वेद ग्रंथियाँ (Sweat Glands)- स्वेद का अर्थ है-पसीना इस प्रकार स्वेद ग्रंथि पसीने की ग्रंथि है। यह ग्रंथियाँ त्वचा असंख्य होती हैं। स्वेद ग्रंथि वस्तुतः एक नली होती है जो नीचे की ओर से कुण्डलित (Spiral) होती है। इसका बाहरी भाग, त्वचा पर चर्मरन्ध्र के रूप में बाहर की और खुलता है। कुण्डलित भाग रक्त कोशिकाओं से पूर्णतः विरा रहर्ता है। रक्त कोशिकाओं से होकर रक्त प्रवाहित होते समय रक्त का घुलनशील विकार रक्तकोशिकाओं की दीवार से निकलकर रक्त वाहिनियों में चला जाता है और चर्मरन्ध्र से होकर पसीने के रूप में शरीर के बाहर निकल जाता है।

पसीने के 100 भाग में 99 भाग जल एवं घुलनशील लवणों में साधारण लवण एवं यूरिया (Urea) ही प्रमुख हैं। शेष अन्य ऐन्द्रिक वर्ज्य (Waste) पदार्थ पसीने द्वारा निकलते रहते हैं। यही पदार्थ जब सड़ने लगता है तो पसीने से दुर्गन्ध आने लगती है।

तैलीय ग्रंथियाँ Sebaceous Glands (सिबेसियस ग्लैण्ड) वालों के पास एक विशेष प्रकार की नन्हीं सी ग्रंथि होती है। इसे ही तैलीय ग्रंथि (Oil glands) कहते हैं। इस ग्रंथि या ग्रंथियों से (क्योंकि ये संख्या में असंख्य होती है) एक प्रकार का स्राव निकलता है जिसे सीवम (Sibum) कहते हैं। इन ग्रंथियों से तैलीय पदार्थ (Sibum) नलियों द्वारा बाल की जड़ से कुछ ऊपर रोम कूपों में पहुँच जाता है। इससे बाल चिकने होते रहते हैं। ये ग्रंथियों सिर, कपाल, चेहरे आदि के भागों में अधिक होती हैं। ठीक इसके विपरीत हथेली एवं तलवों में इन ग्रंथियों का लगभग पूर्णतः अभाव होता है। वे ग्रंथियाँ रंग परत (Malpighian Layer) पर ही अवस्थित होती हैं। जहाँ बाल अधिक होते हैं, वहाँ इनकी संख्या काफी अधिक होती है। सीबम आम्लिक स्वभाव (Acidic Nature) का होता है।

चूँकि इसी सीबम के कारण बालों में चमक होती है। अतः इसके स्राव के अभाव में बाल रुखे दिखते हैं। ठीक इसके विपरीत अधिक स्राव के कारण त्वचा पर पतली परत जम जाती है। यह कंघी करते समय कंघी की जड़ों में जम जाती है।

तैलीय पदार्थों में "कॉलेस्टेरॉल" और "एरगोस्टीरॉल" नामकं तत्त्व मिले होते है। इनमें से एरीगोस्टीरॉल की विशेषता यह है कि सूर्य की रोशनी में या अल्ट्रावायलेट किरण के सम्पर्क में (उपस्थिति में) यह विटामिन 'डी' (Vitamin 'D') में परिवर्तित हो जाता है। बाल्यावस्था में तैलीय ग्रंथि कम सक्रिय होती है। इसी कारण बच्चों के शरीर में अधिक से अधिक तेल की मालिश करके धूप में कुछ देर प्रतिदिन बैठाने की परिपाटी है। बाल रोग विशेषज्ञों की भी यही राय है कि सुखण्डीग्रस्त बच्चों को सरसों के तेल की मालिश करके बैठाना लाभप्रद है। बाल रोग विशेषज्ञ भी इससे सहमत हैं कि इससे विटामिन 'डी' (Vitamin 'D') की प्राप्ति होती है।

नोट-त्वचा सम्बन्धी रोग या चिकित्सा के सम्बन्ध में कुछ जानने से पहले त्वचा को जानना आवश्यक है। अतः पाठकों को त्वचा के सम्बन्ध में सामान्य जानकारी मिल गयी होगी। सम्भवतः कुछ विज्ञ पाठकों को इससे विस्तृत ज्ञान भी हो, जो कि स्वाभाविक है, वे यह न समझें कि लेखक ने विषयवस्तु को छिपाने की कोशिश की है बल्कि प्रयास ऐसा रहा है कि विषय को मात्र उसी रूप में प्रस्तुत किया जाये जिससे वह सर्वग्राह्य हो। मुख्य विषय के बदले "त्वचा ज्ञान" अर्जन के निमित्त ही पुस्तक का अधिकांश भाग ले लिया जाये, ऐसा प्रयास नहीं रहा।

आगे मैं चेहरे के त्वचा सम्बन्धी कुछ सामान्य विकारों से परिचित कराकर उनकी चिकित्सा सम्बन्धी सामग्री सामने रखूँगा। मुख्य विकारों (रोगी) में है-मुहासे, काले दाग (झॉईयाँ सदृश) एवं सफेद दाग आदि। प्रथम इनसे परिचय आवश्यक होगा।

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