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कन्द विषों के भेद

भाव प्रकाश के अनुसार "कन्द विष" नो 9 प्रकार के होते हैं। जिनका विवरण इस प्रकार हैं

1. वत्सनाभ विष इसके पत्ते सम्भालू के समान होते हैं। आकृति बछड़े की नाभि जैसी। इसके आसपास अन्य वृक्ष नहीं लग पाते हैं। यही "यत्सनाभ" विष है।

2. हारिद्र खण्ड-इस विष की जड़ हल्दी के पौधे जैसी होती है।

3. सक्तुक विष इसके गाँठ में सत्तू के जैसा चूरा भरा होता है। अतः इसे सक्तुक विष कहते हैं।

4. प्रदीपन विष-इसका रंग लाल, कान्ति अग्नि के समान, दीप्त और अति दाहकारक होता है।

5. सौराष्ट्रिक विष-यह सौराष्ट्र में पैदा होता है अतः इसे सौराष्ट्र विष कहा जाता है।

6. श्रृंगिक विष-इस विप को यदि गाय के सींग में बाँधा जाये तो दूध लाल हो जाता है। दूसरा नाम "सीगिया विय" भी है।

7. कालकूट विष पीपल वृक्ष के गोंद जैसा होता है। यह श्रृङ्गवेर, कोंकण और मलयाचल में पैदा होता है।

8. हलाहल विष इसका फल दाखों के सदृश गुच्छे जैसा और पत्ते ताड़ जैसे होते हैं। इसके तेज प्रभाव से आसपास के वृक्ष मुर्झा जाते हैं। यह विष हिमालय, किष्किन्धा, कोंकण और दक्षिण महासागर के तट पर होता है।

9. ब्रह्मपुत्र विष-यह पीले रंग का होता है और मलयाचल पर्वत पर पैदा होता है।


सुश्रुत अनुसार कन्द विष के प्रकार


सुश्रुत के अनुसार कन्द विष 13 प्रकार के होते हैं, उनके विष प्रभाव निम्नलिखित हैं-

1. कालकूट विष-स्पर्श-ज्ञान नहीं रहता, कम्प और शरीर स्तम्भ होता है। 2 वत्सनाभ विष-ग्रीवा स्तम्भ होता तथा मल-मूत्र और नेत्र पीले हो जाते हैं।

. 3. सर्पप विष-तालू में विगुणता, अफारा और गाँठ हो जाती है।

4. पालक विष-गर्दन पतली पड़ जाती और आवाज़ बन्द हो जाती है।

5. कर्दमक विष-मल फट जाता और नेत्र पीले हो जाते हैं।

6. वैराटक विष-अंग-प्रत्यंगों में पीड़ा और सिर में दर्द होता है।

7. मुस्तक विष-शरीर अकड़ जाता और कम्पन होती है |

8. श्रृङ्गी विष-शरीर ढीला हो जाता है, दाह होती है और पेट फूल जाता है।

9. प्रपौंडरीक विष-नेत्र लाल और पेट फूल जाता है।

10. मूलक विष-शरीर का रंग बिगड़ जाता, वमन (कै) और हिचकियाँ आती एवं सूजन और मूढ़ता हो जाती है।

11. हलाहल विष-श्यास रुक-रुक कर आता और शरीर काला हो जाता है। 12. महाविष-हृदय में गाँठ बन जाती और भयानक शूल होता है।

15. कर्कटक विष-आदमी ऊपर को उछलता और हँस-हँस कर दाँत चबाने लगता है।

विष प्रयोग का माध्यम

राजा एवं राजा सदृश समृद्धिवानों को अपने उत्तराधिकारियों के द्वारा विष दिये जाते हैं तो एक प्रतिद्वन्द्वी को दूसरे प्रतिद्वन्द्वी द्वारा, राग, द्वेप से कलुषित हृदयवाला व्यक्ति किसी को भी विष दे सकता है। अर्थलोलुप दुर्जन यात्रियों से मधुर सम्बन्ध बनाकर खाने-पीने में विप मिलाकर खिला देते हैं और सामान लेकर, वेहोश अवस्था में छोड़कर चंपत हो जाते हैं। अपने समय के अद्वितीय विद्वान् महर्षि दयानन्द सरस्वती को इसलिये विप दिया गया था कि उन्होंने भारत के प्रायः सभी धर्मावलम्बियों को शास्वार्थ में परास्त कर दिया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि कौन, कहाँ, किस रूप में विष का शिकार होगा, कोई निश्चित नहीं है। अतः यथासाध्य सावधानी बरतनी चाहिये। भगवान धन्वन्तरि के अनुसार, विय प्रयोग के माध्यम ये भी हो सकते हैं।

1. भोजन, 2. पीने का पानी, 3. नहाने का जल, 4. दाँतुन, 5. उबटन, क्रीम, मरहम आदि, 6. माला, 7. कपड़े (वस्त्र), 8. पलंग (शय्या), 9. जिरह-बख्तर (कवच), 10. गहने, 11. खड़ाऊँ, 12. आसन, 13. लगाने के चन्दन एवं छिड़कने के चूर्ण (Powder) आदि, 14. इतर, 15. हुक्का, चिलम या तम्बाकू, 16. सुरमा या अंजन, 17. वाहन में/पर बैठने की जगह (Seat) 18. वायु और मार्ग आदि।

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