शिश्न अथवा लिंग( Penis)

 शिश्न अथवा लिंग(
Penis)


शिश्न या लिंग लिंगेन्द्रिय भी कहलाता है। इसको इन्द्री नाम से भी पुकारते हैं। शिश्न मैथुन क्रिया में भाग लेने वाला मुख्य अंग होता है। इसके बिना कोई भी पुरुप मैथुन क्रिया नहीं कर सकता। मैथुन क्रिया की सफलता शिश्न पर निर्भर करती है। शिश्न जितना अधिक बलशाली, मजबूत, कठोर होता, है मैथुन किया उतनी ही चरम सीमा तक सुखद आनंदमय सम्पन्न होती है। शिश्न जितनी देर तक कठोर-उत्तेजित बना रहता है उतनी देर तक स्त्री और स्वयं पुरुष मीन आत्तन्द में डूबे रहते हैं। स्वी और पुरुप दोनों एक, साथ चरम सीमा तक जाकर स्खलित हो, इसका ध्यान स्त्री और पुरुष दोनों को रखना चाहिये। यदि ऐसा ध्यान रखा गया तो प्रेम संबंध प्रगाढ़ होता है। दोनों ही यदि स्वार्थवश 'अपना काम हो जाये' सोचते रहें तो प्रेम प्रगाढ़ नहीं होने पाता।


शिशन के मुख्य तौर पर दो कार्य होते हैं। एक मूत्र बाहर निकालना तथा दूसरा मैथुन क्रिया में कठोर होकर पुरुष के वीर्य को योनि की गहराइयों में गर्भाशय तक उड़ेलकर गर्भ की स्थापना करना। यदि तीसरे कार्य को देखें तो वह है-स्त्री की योनि में प्रविष्ट होकर स्त्री एवं पुरुष को चरम आनन्द की अनुभूत्ति प्रदान करना। शिश्न की दो अवस्थायें भी होती हैं। पहली अवस्था शिथिल अवस्था दूसरी अवस्था


उत्तेजित अवस्था अथवा कठोर अवस्था कहलाती है। शिथिल अवस्था में शिश्न का आकर छोटा तथा ढीला होता है लेकिन कामोत्तेजना की की अवस्था में यह पत्थर की भाँति कठोर एवं सीधा तन जाता है। कठोर जवस्था में शिश्न का आकार भी बढ़कर लम्बा तथा कुछ मोटा हो जाता है। शिथिल अवस्था में शिश्न योनि में प्रविष्ट हो पाने में असमर्थ रहता है लेकिन उत्तेजित कठोर अवस्था में यह आसानी से योनि की सारी बाधाओं को भेदता हुआ गहराई में प्रविष्ट हो जाता है। जब तक वीर्य स्खलित नहीं हो जाता तब तक शिश्न की उत्तेजना-कठोरता बनी रहती है लेकिन जैसे ही वीर्य स्खलित हो जाता है शिश्न की सारी उत्तेजना तथा कठोरता शनैः शनैः ढीली पड़ जाती है तथा अपनी पूर्व की ढीली-ढाली अवस्था में आ जाता है।


पुरुष जैसे ही कि स्त्री के पास जाता है अथवा स्त्री पुरुष के पास आती है पुरुष के अन्दर तक अजीब सी सनसनाहट भरी उत्तेजना व्याप्त हो उठती है और शिश्न के अन्दर अतिरिक्त रक्त तीव्र गति से आ जाता है, यह रक्त जितनी अधिक मात्रा में आता है शिश्न ** उतनी ही अधिक कठोरता के साथ तन जाता है। शिश्न में यदि रक्त कम आ पाता है तब उसकी कठोरता में भी कमी आ जाती है। शिश्न की संरचना स्पंज जैसी होती है। जिस प्रकार स्पंज में अनेक छिद्र होते हैं। ठीक उसी प्रकार शिश्न की आंतरिक संरचना में भी अनेक छिद्र होते हैं। काम भावना जागृत होते ही रक्त तेजी से आकर इन छिद्रों में भर जाता है। जिसके परिणामस्वस्य शिश्न तन जाता है। यदि रक्त कम आता है तो शिश्न की यह तंनाव अवस्था भी कम हो जाती है। यदि रक्त आशिंक आता है तब तनाव अवस्था भी आशिक हो जाती है। इसी प्रकार यदि शिश्न में रक्त आता ही नहीं यदि आता भी तो शिश्न को तनाव दे पाने की अवस्था में नहीं आ पाता तब शिश्न ज्यों का त्यों ढीला-टाला असहाय अवस्था में पड़ा. रहता है। आमतौर पर ढलती वृद्धावस्था में ऐसा होता है जव शरीर की तमाम शक्तियों का हात हो चुका होता है। मैथुन के मध्य में भी. शिश्क कुछ कम कटोर हो जाता है। इसका कारण कुछ रक्त का शिश्न से वापस लौट जाना है।

उत्तेजित या कठोर अवस्था में शिश्न इंच से लेकर 6 इंच तक कम से कम लम्बा हो जाता है। इसको अधिकतम लम्बाई ४ इंच से लेकर 10. इंच तक होती है। अपवाद के तीर पर इससे अधिक लम्बाई के शिश्न भी हो सकते हैं। शिथिल अवस्था में शिश्न की लम्वाई 2 इंच से लेकर 4 इंच तक की होती है। अपवाद के तौर पर यह लम्बाई 6 इंच तक की भी हो सकती है। सदी तथा सर्व-ठंड पानी के प्रभाव से भी शिश्न सिकुड़कर छोटा हो जाता है। गर्मी का प्रभाव भी शिश्न पर होता है। गर्मी के दिनों में शिश्न की संरचना कुछ फैल जाती है। इसलिये सिधुड़ी अवस्था में भी वह कुछ बड़ा दिखाई देता है। उत्तेजित अवस्था में शिश्न की मोटाई 4 से 6 सेंटीमीटर हो जाती है। इससे अधिक मोटाई भी हो सकती है।


शिश्न की संरचना तीन लम्बे नलों द्वारा प्रकृति ने की है। दो नल इसके दोनों ओर लम्बे-लम्बे होते हैं। इन दोनों को पार्श्व कक्षींग नाम से संबोधित किया जाता है। इन दोनों - नलों के मध्य तीसरा नल स्थित रहता है। मध्य में होने के कारण इसको मध्य कक्षाँग नाम दिया गया है। मूत्र मार्ग का अधिकतर हिस्सा मध्य कक्षाँग में छिपा रहता है। तीनों नल आपस में एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं। इन तीनों को एक ढीला-सा आवरण ढके रहता है।


मैथुन क्रिया में शिश्न की लम्बाई तथा मोटाई का कोई विशेष महत्त्व नहीं है। शिश्न की कठोरता तथा शक्ति पर निर्भर करती है। कुछ स्त्रियाँ छोटे शिश्न वाले पुरुषों को हेय दृष्टि से देखती हैं। कुछ पुरुष भी छोटे शिश्न को लेकर मानसिक तनाव पाल लेते हैं। जो लोग हीनभावना से ग्रस्त नहीं होते, सुखद यौन सुख का आनंद लेते रहते हैं। छोटे शिश्न को ध्यान में नहीं रखा जाना चाहिये। जो स्त्रियाँ शिश्न की लम्बाई को ध्यान में न रखकर यीन तुख की चरम अवस्था का आनंद लेती हैं, जीवन भर प्रसन्न रहती हैं। शिश्न के लम्बे, मोटे था छोटे से मैथुन क्रिया पर कोई असर नहीं पड़ता। मोटे, लन्ये तथा छोटे शिश्न वाले पुरुप समान रूप से मैथुन कर सकते हैं।


शिश्न को चार भागों में बाँटा गया है, चारों भाग निम्नांकित हैं-


1. शिश्न मूल (Root)


3. शिश्न ग्रीवा या गर्दन (Neck or Cervix)


2. शिश्न देह (Body)


4. शिश्न मुंड (Glands Penis)


शिश्न के सामने वाले भाग को ही चौचा भाग या शिश्न मुंह कहा जाता है। यह सुपारी के आकार का होता है। अधिकांशतः बोलचाल की भाषा में शिश्न गुंड सुपारी नाम से ही संबोधित किया जाता है। सुपारी वाला यह भाग बहुत ही संवेदनशील होता है। सुपारी वाले भाग को मणि भी कहा जाता है। सुपारी पतली तथा कोमल त्वचा से ढकी रहती है। यह व्यचा आगे-पीछे सरक कर सुपारी को ढकती तथा खोलती है। इसीलिये इसको शिश्नमुंड का घूंघट कहा जाता है। लिंग या शिश्न को ढकने वाली त्वचा भी इसका एक नाम है। सुपारी से नीचे की जड़ में मैल जम जाने से वहाँ की त्वचा संकीर्ण । जाती है। संकीर्ण हो जाने पर स्त्री के साथ मैथुन करने में काफी कष्ट होता है। सुपारी के मध्य में एक छिद्र होता है। इस छिद्र को मूत्रद्वार कहते हैं। इसी छिद्र से मूत्र निकलता है। मैथुन के बाद चरम सीमा आ जाने पर इसी छिद्र की राह वीर्य चाहर निकलता है। सुपारी 

२. नीचे तीनों नलों की संधि स्थल को शिश्न देह कहा जाता है। वस्ति गहर में बंधनी जाल द्वारा वंक्षणास्थि तथा विरापास्थियों में मिले हुये अंश को शिश्नमूल कहा जाता है। शिश्न की त्वचा ढीली होती है। जो शिश्न के. कठोर हो जाने पर तन जाती है। जिससे शिश्न उसकी गिरफ्त में प्रतीत होता हैं। शिश्न के ऊपर बाल नहीं होते। दोनों जाँघों के मध्य भाग जहाँ जांघों के मध्य भाग से शिश्न जुड़ा रहता है। वहाँ की त्वचा बालों से भरी रहती है। अण्डकोष पर उतने चाल नहीं रहते अर्थात् कम वाल रहते हैं। शिश्न के सुपारी वाले भाग में संज्ञा वाले तंतु अधिक मात्रा में उपस्थित रहते हैं। सामान्य शिश्न न अधिक मोटा, न अधिक छोटा, न अधिक लम्बा तथा न ही अधिक पतला ही होता है। सामान्य शिश्न मैथुन की इच्छा जागते ही कठोर हो जाता


शिश्न की प्रत्येक पेशी में घटने-बढ़ने की क्षमता होती है लेकिन शिश्न की पेशियाँ अपनी इच्छा से घट-बढ़ सकने की सामर्थ्य नहीं रखतीं। यह कार्य स्नायु शक्ति के अधीन होता है। शिश्न में स्नायुओं का जाल बिछा हुआ है। इन्हीं है। वजह से पेशियों घटती-बढ़ती हैं। नपुंसकता की चिकित्सा करते समय स्नायु शक्ति की मजबूती की, ओर ध्यान देना अति आवश्यक होता है। स्नायु जितने मजबूत होंगे, नपुंसकता उतनी ही दूर रहेगी।

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