कन्द विषों के भेद

 कन्द विषों के भेद

भाव प्रकाश के अनुसार "कन्द विष" नो 9 प्रकार के होते हैं। जिनका विवरण इस प्रकार हैं

1. वत्सनाभ विष इसके पत्ते सम्भालू के समान होते हैं। आकृति बछड़े की नाभि जैसी। इसके आसपास अन्य वृक्ष नहीं लग पाते हैं। यही "यत्सनाभ" विष है।

2. हारिद्र खण्ड-इस विष की जड़ हल्दी के पौधे जैसी होती है।

3. सक्तुक विष इसके गाँठ में सत्तू के जैसा चूरा भरा होता है। अतः इसे सक्तुक विष कहते हैं।

4. प्रदीपन विष-इसका रंग लाल, कान्ति अग्नि के समान, दीप्त और अति दाहकारक होता है।

5. सौराष्ट्रिक विष-यह सौराष्ट्र में पैदा होता है अतः इसे सौराष्ट्र विष कहा जाता है।

6. श्रृंगिक विष-इस विप को यदि गाय के सींग में बाँधा जाये तो दूध लाल हो जाता है। दूसरा नाम "सीगिया विय" भी है।

7. कालकूट विष पीपल वृक्ष के गोंद जैसा होता है। यह श्रृङ्गवेर, कोंकण और मलयाचल में पैदा होता है।

8. हलाहल विष इसका फल दाखों के सदृश गुच्छे जैसा और पत्ते ताड़ जैसे होते हैं। इसके तेज प्रभाव से आसपास के वृक्ष मुर्झा जाते हैं। यह विष हिमालय, किष्किन्धा, कोंकण और दक्षिण महासागर के तट पर होता है।

9. ब्रह्मपुत्र विष-यह पीले रंग का होता है और मलयाचल पर्वत पर पैदा होता है।


सुश्रुत अनुसार कन्द विष के प्रकार


सुश्रुत के अनुसार कन्द विष 13 प्रकार के होते हैं, उनके विष प्रभाव निम्नलिखित हैं-

1. कालकूट विष-स्पर्श-ज्ञान नहीं रहता, कम्प और शरीर स्तम्भ होता है। 2 वत्सनाभ विष-ग्रीवा स्तम्भ होता तथा मल-मूत्र और नेत्र पीले हो जाते हैं।

. 3. सर्पप विष-तालू में विगुणता, अफारा और गाँठ हो जाती है।

4. पालक विष-गर्दन पतली पड़ जाती और आवाज़ बन्द हो जाती है।

5. कर्दमक विष-मल फट जाता और नेत्र पीले हो जाते हैं।

6. वैराटक विष-अंग-प्रत्यंगों में पीड़ा और सिर में दर्द होता है।

7. मुस्तक विष-शरीर अकड़ जाता और कम्पन होती है |

8. श्रृङ्गी विष-शरीर ढीला हो जाता है, दाह होती है और पेट फूल जाता है।

9. प्रपौंडरीक विष-नेत्र लाल और पेट फूल जाता है।

10. मूलक विष-शरीर का रंग बिगड़ जाता, वमन (कै) और हिचकियाँ आती एवं सूजन और मूढ़ता हो जाती है।

11. हलाहल विष-श्यास रुक-रुक कर आता और शरीर काला हो जाता है। 12. महाविष-हृदय में गाँठ बन जाती और भयानक शूल होता है।

15. कर्कटक विष-आदमी ऊपर को उछलता और हँस-हँस कर दाँत चबाने लगता है।

विष प्रयोग का माध्यम

राजा एवं राजा सदृश समृद्धिवानों को अपने उत्तराधिकारियों के द्वारा विष दिये जाते हैं तो एक प्रतिद्वन्द्वी को दूसरे प्रतिद्वन्द्वी द्वारा, राग, द्वेप से कलुषित हृदयवाला व्यक्ति किसी को भी विष दे सकता है। अर्थलोलुप दुर्जन यात्रियों से मधुर सम्बन्ध बनाकर खाने-पीने में विप मिलाकर खिला देते हैं और सामान लेकर, वेहोश अवस्था में छोड़कर चंपत हो जाते हैं। अपने समय के अद्वितीय विद्वान् महर्षि दयानन्द सरस्वती को इसलिये विप दिया गया था कि उन्होंने भारत के प्रायः सभी धर्मावलम्बियों को शास्वार्थ में परास्त कर दिया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि कौन, कहाँ, किस रूप में विष का शिकार होगा, कोई निश्चित नहीं है। अतः यथासाध्य सावधानी बरतनी चाहिये। भगवान धन्वन्तरि के अनुसार, विय प्रयोग के माध्यम ये भी हो सकते हैं।

1. भोजन, 2. पीने का पानी, 3. नहाने का जल, 4. दाँतुन, 5. उबटन, क्रीम, मरहम आदि, 6. माला, 7. कपड़े (वस्त्र), 8. पलंग (शय्या), 9. जिरह-बख्तर (कवच), 10. गहने, 11. खड़ाऊँ, 12. आसन, 13. लगाने के चन्दन एवं छिड़कने के चूर्ण (Powder) आदि, 14. इतर, 15. हुक्का, चिलम या तम्बाकू, 16. सुरमा या अंजन, 17. वाहन में/पर बैठने की जगह (Seat) 18. वायु और मार्ग आदि।

शरीर में विष प्रवेश के मार्ग

1. आहार या पेय के द्वारा मुख मार्ग से, 2. गुदा, योनि, कान आदि शारीरिक छिद्रों द्वारा 3. सूँघने की क्रिया द्वारा नासिका मार्ग से, 4. बाह्य प्रयोग द्वारा-रोम कूप से, 5. घाव या क्षत द्वारा, 6. चर्म, माँसपेशी या शिरा में इंजेक्शन (Injectcon) लगाने से।

विष का प्रभाव

यदि कोई विष शरीर में पहुँच गया है तो उसका प्रभाव कितना होगा, वह इन तथ्यों पर निर्भर करता है-

1. विष की न्यूनाधिक मात्रा-सभी प्रकार के विषों की दो प्रकार की मात्रायें होती हैं, क्योंकि संशोधित रूप में सभी विष औषधि भी होते हैं व चिकित्सा में प्रयोग किये जाते हैं। अधिकतर देखा गया है कि चिकित्सीय मात्रा सूक्ष्म एवं विष रूप में प्रयोगार्थ मात्रा स्थूल होती है। यदि विष रूप में भी मात्रा छोटी हो तो विष का प्रभाव भी कम होता है।

2. विष का स्वरूप एवं प्रकार-विष का स्वरूप कैसा है? वह किस श्रेणी का है।

स्थावर, जंगम था कृत्रिम (रासायनिक) वह किस प्रकार का हे ठोस, द्रथ पा गैस ? किस रूप में व्यवहत हुआ है मौखिक बाय लेप, छिड़काव आदि।

3. विशिष्ट प्रयोग-यदि मौलिक या बाप प्रयोग ना हुआ है तो किस रूप में? गुदा, योनि, कान, श्वास के माध्यम से, घाव या क्षत मार्ग से या सुचीषेध (Injections) से

4. रोगी की आयु एवं स्वास्थ्य-यदि आप कम हो अथवा क्षीणकाय (कमजोर स्वास्थ्य) हो तो विष अपेक्षाकृत अधिक प्रभावी होता है। जबकि वयस्क एवं बलवान शरीर बाली पर विप कम प्रभावी होता है क्योंकि उनमें सहन करने की क्षमता होती है।

5. रोगी का स्वभाव-उग्र स्वभाव वाले रोगी पर विप का प्रभावशी पड़ता है जबकि शान्त स्वभाव वालों पर छोरे-धीरे एवं मध्यस्व स्वभाव बालों पर मध्यम रूप से पड़ता है।

6. नींद के समय नींद की अवस्था में (सुप्तावस्या में विध शी प्रभावी होता और तत्काल शरीर में फैलने लगता है। लेकिन जागृत अवस्था में विप तेजी से नहीं फैल पाता है।

विष चिकित्सा के सामान्य सूत्र

• विष से मुक्ति दिलाने के लिये, विष को प्रभावहीन करने के लिये यथाशीष, हरीर का शोधन करें। इसके लिये बमन करायें। यामक औषधि दें एवं दस्तावर औषधि का प्रयोग करायें। पेट साफ करने का प्रयास करें।

• उपरोक्त क्रिया के साथ-साथ राइल ट्यूब (Ryle Tube) द्वारा आमाशय प्रक्षालन करें। बार-बार आमाशय धोने के बाद विषनाशक योग इसी ट्यूब के सहारे आमाशय में पहुंचायें। विषनाशक इंजेक्शन (Injection) का भी प्रयोग करें। रोगी स्वयं औषधि विषनाशक योग लेने को तैयार हो या लेने में सक्षम हो तो मुँह से भी सेवन करा सकते हैं।


● विषाक्त रोगी के शरीर को विषमुक्त करने के प्रयास के साथ-साथ उसके हृदय के रक्षार्य भी किसी कदम को उठाने से पीछे नहीं रहना चाहिये। क्योंकि प्राणस्थत हृदय हैं। विष के प्रभाव से हृदय प्रभावित हो जाने पर अशुभ की आशंका बढ़ जाती है। अतः हदय के रक्षार्थ भी औषधियों का प्रयोग उचित मात्रा में करें।


• हृदय को विष से बचाये रखने के लिये मॉस, घी, मज्जा, गेरू, गोबर, गन्ने का रस, बकरी आदि का रक्त, भस्म और मिट्टी इसमें से जो मिले और रोगी जिसके साथ सहमत हो उसी का प्रयोग यथाशीघ्र करें। ये योग आमाशय में पहुँचकर विष को अपने में मिला लेता और प्रभाव को कम कर देता है। विष फैलने की गति को नियंत्रित करता है, फिर वमन और रेचन कराने के लिय कुछ समय मिल जाता है।


• शरीर में शोषित विष को निकालने के लिये प्रत्येक सम्भव प्रयास तत्क्षण करना चाहिये। इसके लिये यदि धमनी-शिरा को खोलकर विषैले रक्त को चूत-चूस कर बाहर निकालने की भी आवश्यकता पड़े तो वैसा करने से चूकना नहीं चाहिये। कपिंग ग्लास या अधिक संख्या में जोंक लगाकर भी रक्त चुसवाकर शरीर से विष निकलवा देना चाहिये।


• लाक्षणिक चिकित्सा-अर्थात् जो कष्ट उभरें उसके अनुरूप औषधि प्रयोग अवश्य करते रहें, जब तक कि रोगी पूर्ण स्वस्य नहीं हो जाये।

• हृदय की भाँति फेफड़ों एवं मस्तिष्क को स्वस्थ बनाये रखने का प्रवास भी सदा जारी रखें।


• रोगी को सदा जगाये रखें एवं यदि सर्पविष से विषाक्त हो तो दोनों हाथों को आगे-पीछे चलाते हुये गतिशील रखें, रोगी स्वयं करने में असमर्थ हो तो ऐसा करवाने की व्यवस्था करें।

विषाक्त रोगी की चिकित्सा और विधि-विधान

इन्हें याद रखें

1. यदि आत्महत्या के उद्देश्य से स्वयं विषपान किया हो तो सम्भव है, आपकी चिकित्सा से स्वस्थ होकर भी घर जाकर वह पुनः ऐसा करे और मृत्यु हो जाने पर घरवालों के द्वारा आपकी चिकित्सा ही अधूरी कह दी जाये।

2. कभी-कभी परिवार के सदस्य ही किसी प्रकार के विषय खिलाकर हत्या का प्रयास करते और चिकित्सक के सामने बनावटी रोना-धोना करते हुये भूल से विष खा लने की कहानी रचते हैं। इस स्थिति में भी पुनः प्रयास कर हत्या की जा सकती है और उपरोक्त

संख्या 1 की भाँति चिकित्सक को बदनाम करने का प्रयास किया जा सकता है।

 3. यदि बच्चे छोटे हों, विपाक्त हो चुका हो तो उसकी परिचारिका के साथ (बच्चे का) सम्बन्ध कैसा है, इसका भी अध्ययन करना आवश्यक समझें।

4. कभी-कभी ऐसा होता है कि "रोगी विषाक्त है' यह परिवार के सच सदस्य जानते हैं, लेकिन नादानी वश अपने चिकित्सक से भी छिपाने का प्रयास करते हैं।" बेहोश है, कैसे क्या हुआ कुछ पता नहीं" यह उनका उत्तर होता है। ऐसी स्थिति में यदि चिकित्सक को सन्देह विष का हो तो वाक्य पटुता से सत्य को स्पष्ट करावें अन्यथा चिकित्सा बदनाम होगी।

5. कभी-कभी विषाक्त रोगी की मृत्यु हो जाती है तो परिवार के सदस्य विधि विधान से बचने के लिये चिकित्सक को पैसे देकर सामान्य मृत्यु (Natural death) का प्रमाण पत्र लेने का प्रयास करते हैं।

6. विषाक्त रोगी के साथ जितने व्यक्ति हों, उनकी आपसी बातों को ध्यान से सुनते रहना चाहिये। कभी-कभी चिकित्सक को जो कुछ बतलाया गया होता है यह पूर्णतः सत्य से परे होता है।

7. रोगी बेहोशी की अवस्था में लाया गया हो तो होश में आने पर उससे पूर्ण जानकारी लें एवं अन्य के द्वारा प्राप्त सूचना को सत्य की कसौटी पर कसें।

8. किसी के मात्र कहने पर, विषदाता के रूप में किसी के विरुद्ध प्रमाणपत्र देना उचित

नहीं है।

9. विषाक्त रोगी के परिवार के सदस्यों में से किसी न किसी को अपने चिकित्सालय में रोगी को देख-रेख करने के बहाने अवश्य रखें। इससे आपकी तत्परता को वदनाम करने का अवसर किसी के हाथ नहीं आयेगा।

10. यदि वमन और रेचन (कै और वस्त) कराने के बाद, आमाशय प्रक्षालन के बाद भी रोगी की स्थिति में सुधार होते नहीं देख रहे हों तो अपने से योग्य किसी और चिकित्सक को बुला लें या सरकारी अस्पताल भेज दें। रोगी को भेजते समय अपने द्वारा किये गये उपचार का लिखित विवरण रोगी के साथ अभिभावकों दे दें।

ऐसा अवश्य करें

1. यदि रोगी विषाक्त है तो आगे परिणाम कुछ भी हो सकता है और चिकित्सीय बदनामी आ सकती है। अतः समीप के धाना (जिस थाना के अन्तर्गत यह घटना पटी हो) में सूचना दिलवाकर या देकर, याने से चिकित्सा अधिकार लिखित प्राप्त करने के बाद ही चिकित्सा प्रारम्भ करें।.

2. जहाँ थाना नजदीक न हो, रोगी की चिकित्सा में देर होने से प्राण संकट में हों-वहाँ गाँव वा कस्बे के प्रधान (मुखिया) से लिखित अधिकार लेकर चिकित्सा प्रारम्भ करें जिस पर पाँच व्यक्तियों के गवाह रूप में हस्ताक्षर हों, जिनमें कम से कम दो व्यक्ति ऐसे हों जो विपाक्त रोगी के परिवार से जुड़े हों।

3. आप स्वयं "विपदाता के रूप में" किसी का नाम मौखिक या लिखित में, कभी न लें अन्यया प्रमाणित न होने पर मानहानि का मुकदमा आप पर चलाया जा सकता है।

4. विषाक्त रोगी के सम्बन्ध में कभी भी सामान्य मृत्यु (Natural Death) का प्रमाणपत्र न दें।

5. रोगी की स्थिति अधिक नाजुक हो तो निश्चित रूप से यथाशीघ्र सरकारी अस्पताल भेज दें।

विषाक्त रोगी का परीक्षण, निरीक्षण एवं विष निर्णय

1. विषाक्त रोगी के यहाँ पहुँचकर अपने आपको बाहर से सामान्य लेकिन अन्दर से काफी सजग रखें। कान से लोगों के कथोपकथन को सुनते रहें। आँखों से विष सम्बन्धी प्रमाण को खोजते रहें। सम्भव है कोई विष की शीशी, पॉउच, पुड़िया या कुछ ऐसे सुराग मिल जायें जिससे विष के सम्बन्ध में जानकारी मिल जाये।

2. परिवार के सदस्यों से घुल-मिलकर बातें करें, सहृदयता का प्रदर्शन करें लेकिन एक-एक सदस्य के चेहरे का भी अध्ययन करते रहें, विषदाता अपने आन्तरिक घबराहट को

चाहकर भी छिपा नहीं पाता है।

3. कोई विशेष जानकारी न मिल पाये तो पति-पत्नी के बीच के सम्बन्ध के बारे में जानकारी लें और पति/पत्नी से जो सामने उपस्थित हो, उससे छानबीन करें। चेहरे का

अध्ययन करें। यदि वहाँ घबराहट हो तो चिकित्सा करने के नाम पर विष का नाम स्पष्ट करायें। 4. रोगी के बिछावन, कपड़ों और मुँह को ध्यान से देखें कि विष के निशान तो नहीं लगे हुये हैं। तेजाब, सोडा कास्टिक आदि प्रयोग होने पर उनके प्रभाव से कपड़े जले हुये हो सकते हैं। मुँह और होंठ भी जले तथा सूजे हुये हो सकते हैं।

5. रोगी के मुँह एवं साँस को ध्यान से सूयें और देखें कि अफीम, शराब, कार्यालिक एसिड की बू तो नहीं आ रही है।

6. रोगी की आँखों को खोलकर ध्यान से देखें कि उसकी पुतलियों फैली हुई या सिकुड़ी हैं। अफीम या इससे बनी दवायें खाने से पुतलियों सिकुड़ जाती और धतूरे के विप से विषाक्त होने पर फैल जाती हैं। शराय पीने से आँखें लाल हो जाती है तथा पुराने शरावियों की आँखों में लाल धारियों हो जाती हैं।

विष निर्णय 

1. होंठ एवं मुँह जला हो-तेजाब, कास्टिक सोडा और दूसरी तेज अल्कली (Alkali)

विषपान का सन्देह करें

2. मुँह जला हुआ एवं उसमें सफेद दाग-नमक का तेजाव (Hydrochloric Acid) या काबॉलिक एसिड (Carbolic Acid) का सन्देह करें।

3. मुँह जल जाने से काला दाग-गन्धक का तेजाब (Sulphuric Acid) लिया होगा।

4. मुँह जल जाने से पीले दाग-शोरे का तेजाव (Nitric Acid) लिया होगा।

5. उदरशूल (पेट की उग्र पीड़ा) सखिया, सीता, तोवा के साल्ट का विप प्रयोग का संकेत है।

6. दस्त आना-भोजन के विपेले प्रभाव का परिणाम समझें। संखिया में भी कई बार रक्त मिले दस्त आते हैं।

7. लम्बी बेहोशी या संन्यास (Coma) - शराव, अफीम और इनसे बनी औषधियों भाँग, गाँजा, बार्बीट्यूरेट्स प्रकार की औषधियों क्लोरल हाईड्रेट, बेलाडोना, हायोसाइमस, धतूरा, पोटाशियम सायनाईड, कार्बनमोनोआक्साईड (कोयला, पेट्रोल और जलने से उत्पन्न गैस)

आदि का प्रभाव हो सकता है। 

8. प्रलाप (बिना सिर-पैर की अधिक बातें करना (Deliruim) - धतूरा, हायोसाइमस,

भाँग और शराब का प्रभाव हो सकता है।

9. आक्षेप (ऐंठन Spasm) - कुचला, स्ट्रिकनीन और उनसे बनी दवाओं की ओर संकेत करता है।

10. आँखों की पुतलियाँ सिकुड़ी हुई अफीम का लक्षण है।

11. आँखों की पुतलियाँ फैली हुई धतूरा और बेलाडोना में से किसी का भी प्रभाव हो सकता है।

12. मुँह से विशेष प्रकार की दुर्गन्ध-शराब, मेथिलेटेड स्प्रिट, मिट्टी का तेल, तारपीन का तेल, कार्बोलिक एसिड में से किसी का भी दुष्प्रभाव हो सकता है।

विषाक्त रोगी के मुख्य कष्टों की चिकित्सा


यद्यपि विषों की अलग-अलग चिकित्सा दी गयी है। लेकिन कुछ ऐसे कष्ट हैं जिनसे विष चिकित्सकों को परिचित होना, उनकी चिकित्सा से अवगत होना आवश्यक होता है।

इनकी आवश्यकता किसी भी विष के दुष्प्रभाव में, किसी भी समय हो सकती है। वे निम्नलिखित हैं

निम्न रक्तचाप-विषाक्त रोगी में प्रवल अवसाद का लक्षण प्रकट होता है जिसकी चिकित्सा तत्काल ही जरूरी होती है। तेजाब एवं अन्य जला देने वाले विषों से रोगी के भीतरी अंगों के टिशूज़ नष्ट हो जाते हैं। वार-बार के, दस्त आने से या करवाने से, पसीना आने से शरीर के रस-रक्त आदि का तरल कम हो जाता है। जिसके परिणामस्वरूप रक्तचाप निम्न हो जाता है। क्योंकि रक्त संचार में बाधा उत्पन्न होने लगती है। शरीर की कोशिकाओं को ऑक्सीजन मिलना कम हो जाता है। इस समय चिकित्सक को हृदय की क्रिया पर नज़र रखनी चाहिये। उसे शक्तिशाली बनाये रखना, विशेष परिस्थिति में ऑक्सीजन पहुँचाना आवश्यक है। रोगी की चेतना शक्ति को बनाये रखने के लिये बार-बार दिलासा भरी बातें करें। रोगी को विस्तर पर पीठ के बल लिटा दें एवं पाँव की ओर वाले भाग को कुछ ऊँचा उठा दें। इसके लिये चारपाई के पाँवों के नीचे ईटं रखवायें। रोगी को कम्बल वा रजाई से ढक दें। ध्यान रहे कि रोगी ठण्डा या पीला कितना भी जान पड़े लेकिन उसे आग की गर्मी न दें। कोई भी चिप आग और पानी से प्रभावी होता है। सख्त दर्द और बेचैनी को दूर करने के लिये मॉफीन इंजेक्शन लगायें। रक्तचाप सामान्य होने तक प्रति घण्टा रक्तचाप चेक करते रहें एवं तदनुसार चिकित्सा करें।

साँस रूकना या बन्द होना जीवन के लिये श्वास-प्रश्वास परमावश्यक है। अतः अन्य उपचारों की ओर ध्यान देते हुये श्वसन क्रिया नियमित रहे, इसके प्रति पूर्ण सजग रहें। यदि गति धीमी हो रही हो तो यथाशीघ्र गले की साफ करें, अंगुली में सूती पतले कपड़े लपेट कर गले की बलगम को निकाल दें, कृत्रिम दाँत हों तो मुँह से निकाल लें एवं छाती को सहलाते हुये, दोनों हाथों को ऊपर नीचा करते हुये फेफड़ों में गति करें। हृदय को शक्तिशाली बनाने के लिये इंजेक्शन प्रयोग लगायें। कैल्शियम सैन्डोज विथ विटामिन 'सी' (Calcium Sandoz with Vit. 'C') नोवार्टिज का 1 एम्पूल शिरा में (I.V.) धीरे-धीरे दें। यदि इन उपचारों से 10 मि.लि. एवं पोलीवियोंन (Polybion) का 1 कैप्सूल शिरा में (1.V.) धीरे-धीरे दें। यदि इन उपचारों से श्वास-प्रश्वास की गति में सुधार नहीं हो तो यथाशीघ्र सरकारी अस्पताल में भेज दें। अपने उपचार का पूर्ण विवरण लिखकर रोगी के साथ भेज दें।

हृदय को गतिशील बनाना-विप के शामक प्रभाव के कारण हृदय की गति रुक जाती है। यदि तत्काल दक्षतापूर्वक कुछ क्रियायें की जायें तो हदय को पुनः गतिशील होना सम्भव होता है। यदि अधिक देर हो जाये तो पश्चाताप के सिवाय कुछ हाथ नहीं आता है।

इसके लिये रोगी के प्रति पूर्ण सजग रहना आवश्यक है। ऐ सी परिस्थिति आते ही तुरन्त रोगी के हृदय की मालिश करके हृदयगति को चालू करने का प्रयत्न करें। डॉक्टरी में इसे क्लोज्ड चेस्ट कार्डियल मैसेज (Closed Chest Cardial Mass age Medi. Dic. 35/-) कहते हैं। रोगी को पीठ के बल लिटायें। उपचार करने वाला व्यक्ति रोगी की जाँघों की दोनों ओर पाँव रखकर घुटनों के बल झुक जाये। परन्तु रोगी पर बोझ न 'पड़े। अब अपने वाँयें हाथ की हथेली रोगी की छाती की हड्डी पर रखकर बायें हाथ पर अपने दायें हाथ की हथेली रख दें। दायें हाथ से अपने बायें हाथ को नीचे की ओर दवाये, जिससे छाती की हड्डी 2.5 से. 17 मी. नीचे तक दव जाये। अब हाथ को हटा दें। इस प्रकार से दबाव डालने एवं दबाव हटाने की किया चार-बार प्रति मिनट 60-70 बार करें। इस क्रिया को तब तक जारी रखें जब तक सॉस आना-जाना स्वाभाविक रूप से जारी न हो जाये। श्वसन क्रिया जारी हो जाने पर भी मालिश कुछ देर तक जारी रखें। विकट परिस्थिति में, शीघ्र लाभ के लिये एक व्यक्ति ऐसा उपचार करने में लगा हो तो दूसरा व्यक्ति रोगी के मुँह के पास, अपना मुँह ले जाकर रोगी के मुँह में हवा छोड़े जिससे फेफड़ों में हवा का आना-जाना भी जारी हो जाये और सफलता शीघ्र मिल जाए। पूर्ण लाभ होने तक इन क्रियाओं को किया जाए।

मूत्र बन्द होना-बार-वार के, दस्त, पसीना आदि अधिक आने से, विपों के प्रभाव से शरीर की भीतरी श्लैष्मिक कला छिल तथा फट जाने से वृक्कों में रक्त कम पहुँचने, शरीर के तरल में कमी आ जाने के कारण मूत्र कम मात्रा में आता है या बन्द हो जाता है। निम्न रक्तचाप (Low Blood Pressure) के कारण, वृक्क मूत्र निकालने में अयोग्य ही जाते हैं। इस स्थिति में मूल कारण के अनुसार समुचित उपचार करे। मूत्र न आने से गुदों (वृक्कों) का विष रक्त में मिलकर रोगी की अवस्था और अधिक विगड़ सकती है।

आक्षेप, ऐंठन (Convalsion) - कई प्रकार के विषों के प्रभाव से रोगी की माँसपेशियों एवं शरीर के विभिन्न अंगों में आक्षेप (ऐंठन) पैदा होने लगते हैं। माँसपेशियों ऐंठकर अकड़ जाती हैं। उनमें झटके लगते हैं। कभी-कभी उत्तेजक दवायें देने से भी ऐंठन पैदा होने लग जाती है। ऐसी अवस्या में फेनोवार्चीटोन सोडियम (Phenobarbitone Sodium) 60 से 200 मि.ग्रा. का इंजेक्शन आवश्यकतानुसार माँस (L.M.) या शिरा में लगा देने से या क्लोरप्रोमाज़ीन (Chlorpromazine) 5 से 100 मि.ग्रा. का माँसपेशी में इंजेक्शन लगाने से स्थिति नियंत्रित हो जाती है। आवश्यकतानुसार इसे निश्चित समय के बाद (संलग्न पत्रानुसार) पुनः दी जा सकती है। ऐसी अवस्था में मार्फिन का इंजेक्शन ने लगायें अन्यथा अवसादक (Depressant) होने के कारण आक्षेप के दौरे बढ़ जाते हैं।

पीड़ा, दर्द (Pain)-तेजाब, कास्टिक सोडा और अन्य तेज जला देने वाले विषों के प्रभाव से रोगी को असहनीय पीड़ा होती है। ऐसी अवस्था में मार्फीन या पैथीडीन (Pethidine) का इंजेक्शन (Inj.) लगा देने से रोगी के कष्ट और दर्द दूर हो जाते हैं। परन्तु जहाँ तक सम्भव हो इनका प्रयोग कम से कम करें। प्रयोग करने से बचने का प्रयास करें। मार्फीन में अल्पमात्रा में क्लोर-प्रोमाजीन 25 मि.ग्रा. का इंजेक्शन (Inj.) मिला दी जाये तो

ददाँ और बेचैनी को दूर करने के लिये इसका प्रभाव बहुत बढ़ जाता है।

संक्रमण (Infection)- यदि किसी विष से चर्म या श्लैष्मिक कला जल, कट या फट गई हो, विशेषकर श्वासोंगों में तो वहाँ संक्रमण होने का भय रहता है। विशेषकर बेहोशी की अवस्था में, श्वासोंगों में कै के अंश चले जाने पर फेफड़ों में तुरन्त संक्रमण हो जाता है। ऐसी अवस्था में बेनज़ाइल पेनीसिलीन (Benzyl Penicillin) की 10 मेगा यूनिट 24 घण्टे में कई मात्राओं में बाँटकर इंजेक्शन लगाने से लाभ होता है।


विष क्या है


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